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कविता

झूठ - 3

दिव्या माथुर


मेरी ख़ामोशी
एक गर्भाशय है
जिसमें पनप रहा है
तुम्हारा झूठ
एक दिन जनेगी ये
तुम्हारी अपराध भावना को
मैं जानती हूँ कि
तुम साफ़ नकार जाओगे
इससे अपना रिश्ता
यदि मुकर न भी पाए तो
उसे किसी के भी
गले मढ़ दोगे तुम
कोई कमज़ोर तुम्हें
फिर बरी कर देगा
पर तुम
भूल के भी न इतराना
क्योंकि मेरी ख़ामोशी
एक गर्भाशय है जिसमें पनप रहा है
तुम्हारा झूठ !


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